स्वार्थपरता

 

    हम अपने निजी दर्प और स्वार्थपरता से कैसे पिंड छुड़ा सकते है ?

 

भगवान् के प्रति पूर्ण आत्मोत्सर्ग और भागवत इच्छा के प्रति प्रेमभरे समर्पण द्वारा ।

 

    आशीर्वाद ।

१५ मई, १९४४

 

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    अपनी ओर मुड़ा हुआ प्रत्येक विचार भगवान् पर पर्दा डाल देता है ।

२५ अगस्त, १९४४

 

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    'भागवत उद्देश्य' की सेवा करने के लिए हमें स्वार्थपरता से पूरी तरह मुक्त होना चाहिये ।

२६ मई, १९५४

 

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    स्वार्थपरता और आत्म-दया से कोई लाभ नहीं होता । ज्यादा अच्छा है कि तुम इन दोनों से पिंड छुड़ा लो--क्योंकि यही दो संकीर्ण गतिविधियां तुम्हें भगवान् की सहायता और उनके प्रेम का अनुभव करने से रोकती हैं ।

२५ मार्च, १९६५

 

घमण्ड

 

    घमण्ड : प्रगति में बहुत बड़ी बाधा ।

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    अन्तरात्मा को नहीं, अहंकार और उसके घमण्ड को हार और मानमर्दन का अनुभव होता है ।

 

अहंमन्यता

 

    अहंमन्यता : मिथ्यात्व के सबसे अधिक पाये जाने वाले रूपों में से एक ।

 

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    दीखने की अपेक्षा होना ज्यादा अच्छा है ।

    सच्ची महानता में अहंमन्यता सबसे गम्भीर बाधा है ।

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    एक समय था जब तुम्हारा आत्मसम्मान बहुत बड़ी सहायता था । उसने तुम्हें बहुत-सी बेवकूफियां करने से यह कहकर रोका कि ये तुम्हारी शान के विरुद्ध हैं लेकिन अब वह तुम्हारे रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है ।

 

महत्त्वाकांक्षा

 

    माताजी, हमें हमेशा अहंकार के से सावधान रहना चाहिये ?

 

निश्चय ही यह ठीक है । महत्त्वाकांक्षा हमेशा गड़बड़ और असमञ्जस का स्रोत होती है ।

१६ मई, १९३४

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    मन और प्राण के अज्ञानभरे कामों से, किसी भी प्रकार की महत्वाकांक्षा

 

२८७


से अपने-आपको अलग करके 'दिव्य मां' को अपना काम 'अपनी' इच्छा के अनुसार करने देकर आदमी आन्तरिक और बाह्य शान्ति ओर सुख पा सकता है । मेरा ख्याल कि इस तरह हम सचाई और कृतज्ञता के साथ माताजी की सेवा कर सकते है । क्या यह ठीक ?

 

निश्चय ही । महत्त्वाकांक्षा और अहंकार-भरे हिसाब-किताब के बिना किया गया कार्य, बाहरी और भीतरी शान्ति और आनन्द की शर्त है ।

 

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   सभी महत्त्वाकांक्षाओं के पीछे एक 'सत्य' होता है जो अभिव्यक्त होने के लिए उचित समय की प्रतीक्षा में रहता है । अब जब कि महत्त्वाकांक्षा चली गयी तो सत्य (योग्यताओं और क्षमताओं) के अभिव्यक्त होने का समय आ गया ।

 

   बहुत सावधानी बरतो कि तुम कहीं ''फूल'' न उठो; लेकिन मैं तुम्हारे साथ हूं । कुछ मजेदार चीज करने के लिए तुम्हारी मदद कर रही हूं ।

 

ईर्ष्या

 

   मेरी सत्ता के एक भाग ने 'प्रणाम' के बाद दु:खी की आदत डाल ली है । उसे कुछ लोगों से ईर्ष्या होती है ।  क्या मेरे अन्दर इस बाधा को त्याग का बल नहीं होना चाहिये ?

 

निश्चय ही । लेकिन तुम्हें यह चीज पूरी सचाई के साथ करनी चाहिये और ईर्ष्या की हरकतों को किसी भी रूप में स्वीकार न करना चाहिये ।

१६ अप्रैल, १९३४

 

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    पता नहीं मेरा प्राण हमेशा 'क' से क्यों ईर्ष्या करता है । प्रकट रूप से इसका कोई उचित कारण नहीं हे ।

 

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ईर्ष्या के लिए कभी कोई कारण नहीं होता । यह बहुत ही निम्न और अज्ञानभरी हरकत है ।

२० अप्रैल, १९३४

 

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    ईर्ष्या मन की संकीर्णता और हृदय की दुर्बलता से आती है । बड़े खेद की बात है कि इतने सारे लोगों पर उसका आक्रमण होता है ।

 

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    ईर्ष्या और उसका संगी मिथ्यापवाद दुर्बल और क्षुद्र व्यक्ति की उपज हैं ।

 

    क्रोध की अपेक्षा तरस ज्यादा आता है उस पर । हमें चाहिये कि हम उसके प्रति बिलकुल उदासीन बन जायें ताकि हम अविचल निश्चिति के आनन्द का रस ले सकें ।

 

लड़ाई-झगड़े

 

    तुम यह आशा नहीं कर सकते कि सारी दुनिया तुम्हारी सेवा में हो और सब कुछ उसी तरह से हो जैसा तुम अपने लिए ज्यादा सुविधाजनक समझते हो ।

 

    तुम्हें हर एक के साथ और हर चीज के लिए लड़ना-झगड़ना छोड़ देना चाहिये अन्यथा तुम योग में कुछ भी प्रगति करने की आशा कैसे कर सकते हो ?

२३ सितम्बर, १९३२

 

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यह वृत्ति अपनाओ--किसी व्यक्तिगत झगड़े में किसी का पक्ष मत लो । केवल 'दिव्य शान्ति' , सामञ्जस्य', 'प्रकाश' और 'सुख' के बारे में सोचो और उनके अधिकाधिक पवित्र और शान्त यन्त्र बनो ।

१८ सितम्बर, १९३४

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    यह कभी न भूलो कि मैं झगड़ों को पसन्द नहीं करती और दोनों ही पक्षों को समान रूप से गलत मानती हूं । यहां अपनी भावनाओं, पसन्दों, नापसन्दों और आवेशों पर विजय पाना एक अनिवार्य अनुशासन है ।

१ अक्तूबर, १९४३

 

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    हां तो "क'' ने मुझे यह कहानी बहुत भिन्न तरीके से सुनायी है । और मैं इस बात के लिए अभ्यस्त हो चुकी हूं कि हर एक मुझे अपने ही ढंग से बातें बतलाता है, उस ढंग से जो उसके सबसे ज्यादा अनुकूल हो । और मैं इसे बहुत महत्त्व नहीं देती । केवल एक ही बात है जिसका मुझे हमेशा खेद होता है और वह हे व्यर्थ के लड़ाई-झगड़े जो जीवन को इतना कठिन बना देते हैं जब कि थोड़ी-सी पारस्परिक सद्‌भावना से सब कुछ सामञ्जस्य के साथ सुलझ सकता था ।

२१ जुलाई, १९४७

 

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    आपने मुझसे झगड़ा न करने के लिए कहा हे और कहा हे कि हम एक-दूसरे के साथ मिलकर रहें । मैं स्पष्ट कहता हूं कि मैं वह प्रकाश नहीं देखता जिसमें मैं "क'' के साथ सहमत हो सकृं । मैं उस प्रकाश के लिए प्रार्थना करता हूं । मैं आपके आदेश का उल्लंघन करने के लिए क्षमा चाहता हूं  ।  क्या आप मुझे क्षमा न करेंगी ? मां, आपको क्षमा करना पड़ेगा ।

 

क्षमा और आशीर्वाद तो हैं ही पर इन झगड़ों को रोकने के लिए कुछ-न-कुछ दूसरी व्यवस्था तो करनी ही होगी ।

 

    प्रेम और आशीर्वाद ।

२६ अक्तूबर, १९४८

 

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    सम्बन्ध के महत्त्व को समझने के लिए यह बड़ा अच्छा अवसर है ।

 

२९०


तुम्हें सब झगड़े एकदम बन्द कर देने चाहियें । वे तुम दोनों की साधना के लिए हानिकर हैं ।

 

    अपना भरसक प्रयास करो और अगर तुम सफल न हो सको तो तुम्हें यह सम्बन्ध छोड़ देना पड़ेगा ।

२३ सितम्बर, १९५१

 

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    मैं कभी झगड़ों के बीच में नहीं पड़ती क्योंकि निश्चय ही गलती दोनों की होती हे ।

१० मई, १९५३

 

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    जब दो आदमी झगड़ते हैं तो हमेशा दोनों की गलती होती है ।

 

    भले ही तुम झगड़े की पहल करने वाले न होओ फिर भी झगड़ा करना हमेशा गलत है ।

 

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    जब तुम झगड़ा शुरू करते हो तो यह मानों भगवान् के कार्य के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करना होता है ।

 

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    हां, ये सब झगड़े बड़ी दुःखद बातें हैं--ये कार्य में भयंकर रूप से बाधा देते हैं और हर चीज को अधिक कठिन बना देते हैं ।

 

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    दूसरों की भूलों पर क्रुद्ध होने से पहले तुम्हें अपनी भूलों को याद कर लेना चाहिये ।

२२ जुलाई १९५४

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२९१


    तुम्हें सभी तरह की बाहरी और भीतरी क्रोध, अधीरता और नापसन्दगी की गतिविधियों से पिंड छुड़ा लेना चाहिये । अगर चीजें गलत हो जायें या गलत तरीके से की जायें तो तुम बस इतना ही कहो ''माताजी जानती हैं'' और चुपचाप यथासम्भव अच्छे-से-अच्छी तरह बिना रगड़-झगड़ के काम करते या कराते चले जाओ ।

 

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    यह बात कि कोई अपने दोषों के लिए दुःखी है, --उन्हें ठीक करने के निश्चय को मजबूत बनाने में सहायक हो सकती है, यदि वह चाहे तो ।

 

    लेकिन किसी के दुर्व्यवहार से नाराज होने या रूठने का सचमुच आध्यात्मिक जीवन ओर भगवान् की सेवा के साथ कोई सम्बन्ध नहीं हे ।

 

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    तिरस्कार और अपमान से ऊपर रहना तुम्हें सचमुच महान् बनाता है ।

 

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    अगर कोई हमारे साथ झगड़ा करने आये क्योंकि एक स्थिति में हमने किसी बात को स्वीकार कर लिया है और दूसरी  में अस्वीकार तो क्या किया जाये ? बार-बार की अस्वीकृति से पैदा चारों और की कटुता से बचने के लिए क्या किया जाये ?

 

रही बात समस्त दुर्भावना, ईर्ष्या, लड़ाई-झगड़े और भर्त्सना की, तो इस स्थिति में भी तुम्हें सचाई के साथ इन सबसे ऊपर उठना चाहिये और कड़वे-से-कड़वे शब्दों के उत्तर में सद्‌भावनापूर्ण मुस्कान ही देनी चाहिये और जब तक तुम अपने और अपनी प्रतिक्रियाओं के बारे में पूरी तरह निश्चित न होओ, एक सामान्य नियम के रूप में यही ज्यादा अच्छा होगा कि तुम चुप ही रहो ।

अक्तूबर १९६०

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२९२


    जैसा हमेशा होता है, यह केवल गलतफहमी है और फिर हमेशा की तरह ही हर एक का अहंकार अपनी प्रतिक्रिया द्वारा चीज को बढ़ा-चढ़ाकर गम्भीर बना देता है । लेकिन इसकी व्यवस्था करना आसान है और मुझे विश्वास है कि सबकी सद्‌भावना के साथ सब ठीक हो जायेगा ।

 

    मेरा मानना है कि हमारी व्यक्तिगत और सम्मिलित साधना के लिए उत्तम अवसर हमारे सामने है और इसीलिए मैं अपने-आपको इसमें लगाती हूं और इसमें विशेष रस लेती हूं ।

 

     हम क ''के नाटक की या ''ख'' के नाच या "ग'' के दृश्यलेख की सफलता के लिए काम नहीं करते ।

 

    हम धरती पर अपने काम की सम्पन्नता के लिए भेजी गयी प्रभु की प्रेरणा को भरसक पूर्णता के साथ भौतिक रूप में चरितार्थ करना चाहते हैं ।

 

    और इसके लिए हर एक अन्तरात्मा सहायक और सहयोगी है पर हर एक अहंकार सीमांकन और बाधा है ।

१९६०

 

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    स्पष्ट ही अपने-आपको ऐसी छोटी-मोटी चीजों के कारण विचलित होने देना बहुत खेदजनक है । अगर हर एक अपने काम को वास्तविक महत्त्वपूर्ण काम मानकर उस पर ज्यादा ध्यान दे तो ये सब झगड़े अपने असली रूप में यानी अत्यन्त उपहासास्पद रूप में दिखायी देंगे ।

 

    मैं आशा करती हूं कि जल्दी ही सब कुछ निपट जायेगा और बेकरी के कार्यकर्ताओं में फिर से सामञ्जस्य का राज होगा ।

 

    आशीर्वाद सहित ।

 

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    मेरे आशीर्वाद और मेरी सहायता हमेशा तुम्हारे और बेकरी में काम करने वालों के साथ है ताकि तुम्हारे अन्दर सामञ्जस्य का अधिकाधिक राज हो ।

 

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२९३


    यह जगत् दयनीय दुःख-दैन्य से भरा है लेकिन सभी प्राणियों में सबसे अधिक दयनीय वे हैं जो इतने नीच और दुर्बल हैं कि अपनी दुष्ट प्रकृति दिखाये बिना रह नहीं सकते ।

१८ सितम्बर, १९६३

 

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     मुझे शत्रुता, जुगुप्सा और अविश्वास बिलकुल व्यर्थ लगते हैं । हम सब कितनी आसानी से मित्र बन सकते हैं ।

 

'परम प्रभु' जब धरती पर मनुष्यों के जीवन को देखते हैं तो 'अपने- आप' से यही तो कहते हैं ।

 

प्रेम और आशीर्वाद ।

१४ सितम्बर, १९६९

 

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    हम एकता की बातें करते हैं और कहते हैं कि हम उसके लिए कार्य कर रहे हैं । लेकिन झगड़े की भावना हमारे अन्दर बनी रहती है । क्या हम इस कपट पर विजय न पायेगंए ?

 

मैं यहां तुमसे यही कहने के लिए आयी हूं । और सबसे अच्छा तरीका है भगवान् की सेवा में लग जाना ।

 

    आशीर्वाद ।

१२ मार्च, १९७२

 

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    कोई विवाद नहीं, कोई झगड़े नहीं--टकराहटरहित जीवन की मधुरता ।

 

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    हृदय में से विभाजन को निकाल बाहर करो और फिर विभाजन न होने की बात करो ।

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२९४